ग़ज़ल

खुदा जाने कहाँ है असगरे दीवाना बरसों से
कि उसको ढँढते हैं काबा वो बुतखाना बरसों से

तड़पना है न जलाना है न जलाकर खाक होना है
ये क्यों सोई हुई है फितरते परवाना बरसों से

कोई ऐसा नहीं या रब कि जो इस दर्द को समझे
नहीं मालूम क्यों खामोश है दीवाना बरसों से

हसीनों पर न रंग आया न फूलों में बहार आई
नहीं आया जो लब पर नग़मए–मस्ताना बरसों से

––