गीत

दुखों के दिन मिलते हैं तो सुखों के दिन भी मिलते हैं
सरोवर सूखे रहते हैं तो कभी शतदल भी खिलते हैं
जब शिशिर के आतंकों से जल–थल ठरने लगते हैं
आहत रसाल के पत्ते भी तब झरने लगते हैं

पत्ते विहीन होकर टेसू नंगे दिखलाते हैं
मंटक मय बन जाते गुलाब पत्ते झर जाते हैं
पशु पक्षी सभी ठिठुर करके ठंडक से हिलते हैं
संध्या को पूरब प्रात सभी पश्चिम से मिलते हैं

आकर बसन्त सबको फिर से नवजीवन देता है
हरियाली से भर देता सबका दुख हर लेता है
बौराते हैं रसाल के तरु गुलाब खिल जाते हैं
नाचती तितलियां फूलों पर भौंरे मडराते हैं

पत्ते विहीन टेसू पाकर नव लाली खिलते हैं
सुखों के दिन भी मिले हैं दुखों के दिन भी मिलते हैं
जब ग्रीष्म के झंझावातों को लू लेकर चलता है
अवनी तल का कणकण तृण् तृण सब जलने लगता है

पशु पक्षी व्याकुल तृष्णा से अकुलाने लगते हैं
अरु हरे–भरे तरुवर भी सब मुरझाने लगते हैं
जल से परिपूर्ण सरोवर भी सूखे बन जाते हैं
मानो मरुस्थल के चादर भी उन पर तन जाते हैं

आती है वर्षा ऋतु नभ में बादल घिर जाते हैं
होती है वर्षा सभी नदी नाले भर जाते हैं
शीतल हो जाती विकल धरा हरियाली छाती है
सुखमय प्राणी फिरते हैं अरु खेती लहराती है

भरते हैं सरोवर जल से फिर शतदल भी खिलते हैं
सुखों के दिन भी मिलते हैं दुखों के दिन —–

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