कुछ दोहे…
भक्ति नीति अरु रीति की विमल त्रिवेणी होय ।
कालजयी मानस सरिख ग्रंथ न दूजा कोय ।।
जिनको निज अपराध का कभी न हो आभास ।
उनका होता जगत में पग-पग पर उपहास ।।
जंगल-जंगल फिर रहे साधू-संत महान ।
ईश्वर के दरबार के मालिक क्यों शैतान ।।
परदेसी जब से हुए दिखे न फिर इक बार ।
होली-ईद वहीं मनी जहाँ बसा घर द्वार ।।
निद्रा लें फुटपाथ पर जो आवास विहीन ।
चिर निद्रा देने उन्हें आते कृपा-प्रवीण ।।
पथ तेरा खुद ही सखे हो जाये आसान ।
यदि अंतर की शक्ति की कर ले तू पहचान ।।
निश्चित जीवन की दिशा निश्चित अपनी चाल ।
सदा मिलेंगे राह में कठिनाई के जाल ।।
गागर में सागर भरूँ भरूँ सीप आकाश ।
प्रभुवर ऐसा तू मुझे दे मन में विश्वास ।।
प्रियतम तेरी याद में दिल मेरा बेचैन ।
क्यों तुम दूर चले गए तड़प रहे हैं नैन ।।
एक आँख में नीर है एक आँख में पीर ।
फिर भी तुम हो मारते कटु शब्दों के तीर ।।
रे मन सुन करते नहीं दो लोगों से प्यार ।
एक म्यान में एक ही रहती है तलवार ।।
ज्ञानी से ज्ञानी मिले करें ज्ञान की बात ।
ज्ञान और अज्ञान में होती लातम लात ।।
उमर बिता दी याद में, प्रियतम हैं परदेश ।
निशदिन आते स्वप्न में धरे काम का वेश ।।
पावस की ऋतु आगई शीतल बहे बयार ।
धरती हरियाने लगी चहक उठा संसार ।।
इस झूठे संसार में नहीं सत्य का मोल ।
वानर क्या समझे रतन है कितना अनमोल ।।
बैठो यूँ न उदास तुम मंजिल तनिक न दूर ।
यदि मन से तुम थक गए तन भी होगा चूर ।।
अंधा रोए आँख को बहरा रोए कान ।
इक प्रभु मूरत देखता दूजा सुने अज़ान।।
‘अमन’ करे प्रभु याचना बैठे अपने द्वार ।
प्रभु जी मैं तो कवि हुआ करो शब्द स्वीकार ।।
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